अहिक्षेत्र, बिजौलिया में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के ज्ञान कल्याणक स्थली हुए हैं ।
अश्ववन नामक दीक्षावन में पहुँचकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा।
अश्ववन नामक दीक्षावन में पहुँचकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया।
अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वी तल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेर कर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वज्रमय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं देखो! स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।
तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पार्श्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रातःकाल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहां तो निष्कारण वैर और कहां ऐसी पार्श्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दुःखों से भयभीत प्राणियों को वैर विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
ज्ञान कल्याणक स्थली अहिक्षेत्र (आंवला) निकट बरेली उत्तर प्रदेश में मानी जाती रही है। परन्तु कुछ वर्षो पहले सुधासागर मुनिराज का चर्तुमास बिजौलिया जी (राजस्थान) हुआ था उन्होंने इस स्थल को तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के ज्ञान कल्याणक स्थली के रूप में मान्यता दे दी है अत: दोनों स्थल पूज्यनीय है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की ज्ञान कल्याणक स्थली – अहिक्षेत्र
तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की ज्ञान कल्याणक स्थली – अहिक्षेत्र
बूंदी—चित्तौड़गढ़ राष्ट्रीय राज्यमार्ग पर स्थित इस क्षेत्र में विक्रम संवत् 1226 का एक शिलालेख है, जिसके अनुसार भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान प्राप्त होने से पूर्व कमठ द्वारा इसी स्थान पर उपसर्ग किया गया था। इसके बाद भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह शिलालेख विश्व का सबसे विशालतम शिलालेख माना जाता है।
इस क्षेत्र पर कुल 11 मन्दिर हैं। एक चौबीसी, समवाशरण रचना व 2 मानस्तम्भ हैं। यहां संतशाला व गणधर परमेष्ठी मन्दिर भी हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता के अनुसार उज्जैन के व्यापारी जब यहां यात्रा करते हुये आये, तो उन्हें प्रतिमाओं के बारे में सपना आया। अगले दिन उनके द्वारा निश्चित स्थान पर खुदाई की गई और प्रतिमायें निकाली गईं। इसके बाद इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया।
एक मान्यता यह भी है कि सन् 1858 में कुछ अंग्रेज व्यक्तियों ने शिलालेख के नीचे खजाना होने के अनुमान के कारण उसे खोदने का प्रयास किया, लेकिन जैसे ही उनके द्वारा ऐसा किया जाने लगा, तो उनके उपर मधुमक्खियों ने हमला कर दिया और शिलालेख से दूध की धारा बहने लगी।
चैत्र बदी चतुर्थी को यहां वार्षिक मेला होता है। क्षेत्र में ठहरने का स्थान व भोजनाशाला सशुल्क उपलब्ध है।
बिजोलिया की कोटा से दुरी 85 किलोमीटर, बूंदी से 50 किलोमीटर, चित्तौडगढ से 100 किलोमीटर है
बिजोलिया बस्ती के दक्षिणी पूर्वी भाग में जैन मंदिर बने हुये है। कोटा जाने वाले हाईवे से एक सीधा रास्ता जो बूंदी की तरफ जाता है वहा से एक रास्ता मंदिरों की तरफ जाता है।
बिजोलोया का पार्श्वनाथजी का जैन मंदिर अपने आप में स्थापत्य की दृष्टि से अद्भुत है ये मन्दिर पंचायतन शैली में बना हुवा है जो अपने आप में अनूठा है क्युकि सामान्यत सभी जैन मंदिर 24,52 या 72 जिनालय या कुलिकाओ युक्त होते है जिसमे मध्य में मुख्य मंदिर तथा चारो तरफ ये जिनालय स्थित होते है। मंदिर के समीप ही एक प्राचीन कुंड बना हुवा है जिसे रेवती कुंड कहा जाता है। इसके पास ही प्राचीन सात जैन मंदिरों के भग्नावशेष स्थित है।
मंदिर के आगे चट्टानों पर उत्कीर्ण प्राचीन दो शिलालेख है जिसके संरक्षण हेतु उसके चारो तरफ एक कक्ष बना दिया गया है तथा शिलालेख के ऊपर एक कांच का बॉक्स लगा दिया गया है जिसे जरुरत पड़ने पर उसके दरवाजो को ऊपर उठा कर शिलालेख देखा और पढ़ा जा सकता है। शिलालेख में विक्रम संवत 1226 (1169 इसवी) में पोरवाड जाति के श्रेष्ठी प्रवर सियक के पुत्र महाजन लोलाक द्वारा जैन मंदिर बनाए जाने तथा चौहान शासक सोमेश्वर तथा उसके वंशावली तथा बिजोलिया के समीप स्थित मेनाल के मंदिरों का एक तीर्थ स्थल के रूप में उल्लेख किया गया है।
ये शिलालेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस शिलालेख पर जैन सम्प्रदाय से सम्बंधित उन्नत शिखर पुराण उत्कीर्ण किया गया है जिसमे 5 सर्ग है ततः 294 छंद है। शिलालेख के अनुसार इसी स्थान पर जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने 98 दिवस तक महातप किया था तथा उन्हें यही केवली प्राप्त हुवा था। शिलालेख से बिजोलिया के मंदिरों के तथा मेनाल के मंदिरों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा चौहान शासको की वंशावली पर प्रकाश पड़ता है। दूसरा शिलालेख भी पास में ही स्थित है। बिजोलिया के शिलालेखो के पास में स्थित चट्टानों पर हजारो की संख्या में पगलिये (पांवो के चिन्ह) उत्कीर्ण है।पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्ट मंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहुँचकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये।