भगवान पार्श्वनाथ का काल ईसा-पूर्व आठवीं शताब्दी का इतिहासकारों ने माना है। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म भगवान महावीर निर्वाण से 350 वर्ष पहले पुराणों में उल्लिखित हैं इस प्रकार वीर निर्वाण संवत 2550 में भगवान पाश्र्वनाथ का 2900वां जन्म कल्याणक महामहोत्सव पौष कृष्ण एकादसी ( 7 जनवरी 2024) को मनाया जायेगा।
भगवान पार्श्वनाथ को जैन धर्म प्रवत्र्तक तेइसवें तीर्थंकर के रूप में मान्यता है तथा उनके गर्भ, जन्म एवं तप कल्याणक वाराणसी नगरी में ही हुए थे। उनके केवल ज्ञान कल्याणक अहिक्षेत्र रामनगर आंवला तहसील बरेली के पास उत्तर प्रदेश में माना गया है तथा मोक्ष कल्याणक स्वर्णभद्र कूट, पारसनाथ पहाड़ी, झारखंड प्रांत से हुआ है।
वाराणसी के भेलूपुर मोहल्ले में महाराजा विजयानगरम के महल से सटा हुआ भगवान पार्श्वनाथ का अति प्राचीन मंदिर था। सन् 1985 में दोनों मतावल्मबियों द्वारा आपस सुलहनामा द्वारा बटवारा कर दो अलग-अलग श्वेतांबर एवं दिगांबर मंदिर का निर्माण हुआ। दिगाम्बर मंदिर की नींव खुदाई में पुराने मंदिर के भग्नावशेष, खंडित मूर्तियाँ, खम्बे आदि निकले जो दिगम्बर मंदिर जी में प्रदर्शित हैं तथा उनकी काल गणना 14वीं शताब्दी की मानी जाती हैं।
चैबीस तीर्थंकरों की गौरवशाली परंपरा में बनारस नगरी में जन्मे तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व संपूर्ण देश में अत्यंत लोकप्रिय जननायक, कष्ट एवं विघ्न विनाशक आदि रूपों में पूजित और प्रभावक रहा है। नौवीं शती ईसा पूर्व काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और महारानी वामादेवी के घर जन्मे तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो कि इस श्रमण परंपरा के एक महान पुरस्कर्ता थे, तथा अनेक प्राचीन ऐतिहासिक प्रामाणिक स्रोतों से वे एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में मान्य हैं।
पार्श्वनाथ का जन्म उग्रवंश में हुआ था। वाराणसी के महाराजा ब्रह्मदत्त के पूर्वज उग्गसेन, धनंजय, महासोलव, संयम, विस्ततेन और उदयभट्ट के नाम बौद्ध जातकों में मिलते हैं। संभवतः इनमें उग्गसेन से उग्रवंश प्रचलित हुआ होगा। बृहदारण्यक में भी गार्गी और याज्ञवल्क्य में सम्वाद के समय गार्गी ने श्काश्यो वा वैदेहो वा उग्रपुत्रःश् कहकर काशी और विदेह जनों को उग्रपुत्र कहा है। बौद्ध जातक में पूर्व में उल्लिखित नामों में श्विस्ससेनश् का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन का दूसरा नाम प्राकृत साहित्य में (विस्ससेन) विश्वसेन ही विशेष मिलता है। उग्रवंश आदि इक्ष्वाकुवंशी ही थे।
पौराणिक कथानक के अनुसार पार्श्वनाथ के जन्म के पूर्व उनकी माता वामादेवी ने रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह मांगलिक स्वप्न देखे, जिनका फल था-पार्श्वनाथ अपनी मां के गर्भ में आए। अतः वैशाख कृष्ण द्वितीया को विशाखा नक्षत्र में आनत स्वर्ग से समागत पार्श्वनाथ के पूर्व भव के जीव आनतेंद्र को जैसे ही माता ने अपनी पवित्र कोख में धारण किया कि माता प्राची दिशा की भांति कांतियुक्त हो गईं। नौ माह पूर्ण होते ही पौष कृष्णा एकादशी को अनिल योग विशाखा नक्षत्र में जिस पुत्र का जन्म हुआ वही आगे चलकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ बने। वे तीस वर्ष तक कुमारावस्था में रहे। फिर उन्होंने पौष कृष्ण एकादशी के प्रातः तीन सौ राजाओं के साथ मुनि दीक्षा ग्रहण की। संयम और ध्यान साधना में आपको अनेकानेक भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा, किंतु आप उनसे किंचित विचलित हुए बिना तपश्चरण में लीन रहे और लंबी साधना के बाद उन्हें चैत्र कृष्ण चतुर्थी को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। इसकी प्राप्ति के साथ ही अर्हन्त पद प्राप्त करके वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए।
आत्म-कल्याण के बाद, अर्थात् जन-जन के कल्याण हेतु काशी, कोशल, पांचाल, मरहटा, मारु, मगध, अवंती, अंग-बंग-कलिंग आदि सभी क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए धर्मोपदेश के द्वारा अहिंसा, सत्य, आदि सिद्धांतों का प्रचार एवं धर्मान्धता, पाखंड, ऊंच-नीच की भावना-आदि दोषों को दूर करने का उपदेश देते और विहार करते हुए हजारीबाग के निकट सम्मेद शिखर पहुंचे जहां प्रतिमायोग धारण करते ही श्रावणशुक्ला सप्तमी की प्रातः अवशिष्ट अघातियों के कर्मों का क्षय करके उन्होंने मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त किया। उनके आदर्शपूर्ण जीवन और धर्म-दर्शन की लोकव्यापी छवि आज भी संपूर्ण भारत तथा इसके सीमावर्ती क्षेत्रों और देशों में विविध रूपों में दिखलाई देती है। इनकी मूर्ति की पहचान मुख्यतः सप्त फणावली और पादपीठ के मध्य सर्प चिह्न से होती है। यक्ष धरणेन्द्र और यक्षिणी पद्मावती का मूर्तांकन भी इनकी मूर्ति की पहचान में सहयोगी बनते हैं।
लोकव्यापी प्रभाव अर्धमागधी प्राकृत साहित्य में श्पुरुसादाणीयश् अर्थात् लोकनायक श्रेष्ठपुरुष जैसे अति लोकप्रिय व्यक्तित्व के रूप में प्रयुक्त इनके सम्मानपूर्ण विशेषणों का उल्लेख मिलता है। वैदिक और बौद्ध आदि अनेक धर्मों तथा अहिंसा एवं आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत संपूर्ण भारतीय संस्कृति पर इनके चिंतन और प्रभाव की अमिट गहरी छाप आज भी विद्यमान है। वैदिक, जैन और बौद्ध साहित्य में इनका उल्लेख मिलता है तथा व्रात्य, पणि और नाग आदि जातियां स्पष्टतः पार्श्वनाथ की अनुयायी थीं। वर्तमान में भारत में प्रचलित नाग-पूजा भी निश्चियतः इन्हीं से संबंद्ध प्रतीत होती है।
नाग तथा द्रविड़ जातियों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मान्यता असंदिग्ध है । श्रमण संस्कृति के अनुयायी व्रात्यों में नागजाति सर्वाधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कांतिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केंद्र थे। तीर्थंकर पार्श्वनाथ नाग जाति के इन केंद्रों में कई बार पधारे और यहां इनके चिंतन से प्रभावित हो सभी इनके अनुयायी बन गए।
भारत के पूर्वी क्षेत्रों, विशेषकर बंगाल, बिहार, उड़ीसा आदि अनेक प्रान्तों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में लाखों की संख्या में बसने वाली सराक, सद्गोप, रंगिया आदि जातियों का सीधा और गहरा संबंध तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परंपरा से है। इन लोगों के दैनिक जीवन व्यवहार की क्रियाओं और संस्कारों पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ और उनके चिंतन की गहरी छाप है।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिंतन ने लंबे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। व्यवहार की दृष्टि से उनका धर्म सहज था। धार्मिक क्षेत्रों में उस समय पुढेषाण, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि के लिए हिंसामूलक यज्ञ तथा अज्ञानमूलक तपों का काफी प्रचलन था किंतु उन्होंने पूर्वोक्त क्षेत्रों में विहार (भ्रमण) करके अहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और अनेक आर्य तथा अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हो गईं। धर्म के नाम पर हिंसा की जगह अब तक जो भी अहिंसक प्रयोग देखे जा रहे हैं, इनमें पार्श्वनाथ के उपदेशों का ही विशेष प्रभाव है ।
हमारे देश के हजारों नए और प्राचीन जैन मंदिरों में सर्वाधिक तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की उपलब्धता भी उनके प्रति गहरे आकर्षण, गहन आस्था और लोकव्यापी प्रभाव का ही परिणाम है। मध्य एवं पूर्वी देशों के व्रात्य क्षत्रिय उनके अनुयायी थे। गंगा का उत्तर एवं दक्षिण भाग तथा अनेक नागवंशी राजतंत्र एवं गणतंत्र उनके अनुयायी थे। श्रावस्ती के श्रमण केशीकुमार भी पार्श्व की ही परंपरा के श्रमण थे। संपूर्ण राजगृह भी पार्श्व का उपासक था। तीर्थंकर महावीर के माता-पिता तथा अन्य संबंधी पांडित्य परंपरा के श्रमणोपासक थे।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि प्रधान वेदों के बाद उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता के समावेश में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चिंतन का काफी प्रभाव है। इस तरह वैदिक परंपरा को आध्यात्मिक रूप प्रदान करने में इनका बहुमूल्य योगदान माना जा सकता है।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐसा लोकव्यापी प्रभाव व्यक्तित्व एवं चिंतन था कि कोई भी एक बार इनके या इनकी परंपरा के परिपार्श्व में आने पर उनका प्रबल अनुयायी बन जाता था।